Wednesday, May 4, 2011

अवधूत समूह रत्न राम प्रवचन माला गुरु पूर्णिमा पर्व १६-७-२०००


श्री गुरवे नमः


आदरणीय माताएं एवं प्रिय धर्म बंधुओं, आज इस पर्व में आपकी उपस्थिति अपने आप में बहुत बड़े आध्यात्म का प्रतीक है. आज इस गुरु पूर्णिमा महोत्सव में आप अपने गुरु की छाया में, अपने गुरु वाणी को सुनते हैं, उनके विचारों को सुनते हैं, उस पर आरूढ़ होते हैं, उन्हें अंगीकार करते हैं. यह करने मात्र से आप ऐश्वर्य के अधिकारी होते हैं.  आप गुरु की वाणी का चिंतन मनन करते हैं.  गुह्य से तात्पर्य है गुरु का है. राम वह जो शब्द है, वह गुरु के   बीज का अपभ्रंश है,  राम के नाम का जाप करते हैं तो आप सिर्फ राम के अधिकारी होते हैं, और आप जब उस राम की वाणियों को अपने दैनिक जीवन में अंगीकार करते हैं, तो आप राम के सामान पद के अधिकारी होते हैं. पुरी  रामायण कुण्डलिनी जागरण और  शिवत्व पर आधारित है. जब आप सिर्फ गुरु की बात करते हैं तो गुरु अनुग्रह के पात्र होते हैं, अपनी सारी इच्छाओं को तिरोहित कर समाधि की और बढ़ते हैं, तब आप दस रथ पर आरूढ़ होते हैं, कहा भी गया है " राम राम सब करे दसरथ करे ना कोई, जो दस रथ दस रथ करे वाको जनम सफल होई "जब आप उन कार्यो के प्रति आगे बढ़ते हैं, जिसके लिए आपका जन्म हुआ है, तो आपका जीवन देव तुल्य हो जाता है.

                                                                    गुरु आपकी अंगुली पकड़कर नहीं चलाता, वह बीज रूप में प्रकृति देता है. आप यदि उस परा प्रकृति की प्रकृति को अपने में उतारने का प्रयास करते हैं, तो वह क्षण बहुत आल्हाद का होता है. आपके मुख में मिश्री की तरह जल भर जाता है, इन्द्रियाँ आपमें समाहित हो जाती है, आप अपने आप में स्वयं  आल्हादित होते हैं. गुरु उस निहित तत्व को आप अपने समक्ष उपस्थित करते हैं, विशाल चक्र को बहुत से लोग घुमा नहीं पाते हैं, मध्य में वायु का एक तत्व उसे घुमा देता है. गुरु आपके विचारों को एक पगडण्डी पर डालने का प्रयास करते हैं, आप जब उस पगडण्डी पर अपने विचारों के आवागमन को देखते हैं, तो अज्ञात की कृपा के भाजन होते हैं, गुरु की छाया, विचारों से उत्पन्न तरंगो की छाया को प्राप्त करते हैं. हम आप गुरु के सानिध्य में उपस्थित होते हैं, उनके नख मस्तिष्क से निकलती तरंगे आल्हादित करती हैं. वो मन को जो बेमन का है, उस मन में रखती है. हमें  पथ प्रदर्शक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, इसलिए यह   परंपरा चिर काल से चली आ रही है. ऐसे समय एवं पुण्यतिथि में हम उपस्थित हुए हैं, यह अपने आप  में अच्छे विचारों अच्छी मानसिकता का परिचायक है. 

                                                                    जब आप बहुत दूर बैठे गुरु को देखते हैं, प्रणिपात करते हैं,  तो वह गुरु अपनी वाणी से कार्यो से हमें प्रोत्साहित करते हैं, कि हम उस कार्य को करे जिस निमित्त उपस्थित हुए हैं. बहुत से सज्जन अनुनय विनय करते हैं, बहुत से मधुर शब्दों से, पर उस क्षण हम यह गौर नहीं करते हैं, कि हमारे गुरु कि मुद्रा कैसी है, वो किन किन शब्दों का प्रयोग किस प्रकार करते हैं, किस प्रकार करते हैं, इन बातो पर गौर नहीं करते हैं, और यदि अंगीकार करते भी हैं, तो दूर हटने के पश्चात आरूढ़ नहीं करते हैं, परन्तु जो साधू शिष्य गुरु कि मुद्रा, अवस्था और प्रकृति का ध्यान किये रहता है, वो वाकई शिष्य होने का अधिकारी है. ऐसा इसलिए क्योंकि  गुरु शिष्य नहीं बनाता गुरु गुरु बनाता है. आप इस वन प्रदेश में बुद्ध कि भूमि में, किसी काल में बुद्ध  अपने भिक्षुओ  के साथ गुजरे होंगे, अच्छे विचारों को लेकर इस शिला पर ध्यानस्थ हुए, तभी हम आज यहाँ उपस्थित हुए और उस बुद्धत्व को प्राप्त करने कि बात करते हैं और बीज मंत्रो के लिए गुरु के समक्ष प्रस्तुत हुए हैं. अब अंत में आप सबमे व्याप्त परा प्रकृति को नमन करते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ.

                                    पूज्य अवधूत समूह रत्न रामजी के श्री मुख से...............................