Friday, April 29, 2011

ध्यान का सत्य पुज्य अवधूत समूह रत्न रामजी की लेखनी से..........

 
 
 
 

पूज्य अवधूत समूह रत्न रामजी


आज समाज में विभिन्न तरीको से आचार विचार से व्यवहार से ध्यान की प्रक्रिया क्रिया या हम अपने विचार से जो भी नाम धर दें या धार्मिक दिन सज्जनों को बता दें, ऐसा प्रचलन व्याप्त है. सच क्या है ? क्या हाथ पैर मोड़कर अकर्मण्य बनकर बैठना ध्यान है. या इससे परे भी कुछ है ? मैं सोचता हूँ, ध्यान करना अच्छा होगा या ध्यान देना. ध्यान करते हुए समाज, राष्ट्र, परिवार, परिजन इत्यादि के कर्तव्यबोध का तिरस्कार करके अपने अमूल्य समय, जो पल पल हमसे दूर जा रहा है, या यूँ कहें, हम अपने अमूल्य जीवन से उसे दूर कर रहे हैं. कभी कभी आश्रम में कई विद्वान् जन  इसके विषय में अपने ज्ञान से हमें स्नान कराने का भी प्रयास करते हैं. मैं समझ नहीं पाता हूँ , जो अपने आपको समझा हूँ, ध्यान देता हूँ, जो योग्य है, उसे धारण करता हूँ, जो योग्य नहीं है, उसे उन्ही सज्जनों के पास छोड़ देता हूँ, स्वीकार नहीं करता.
 
                                                                      परम पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु ने इस विषय में कई बार और सांकेतिक भाषा में बार बार हमें ध्यान दिलाया है. समस्या यह नहीं की क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए. समस्या यह है, कि हम अपने गुरुजनों की बातों को वेद पुराणों को अपने विचार के अनुसार समझने का प्रयास करते हैं. कहना यह चाहता हूँ, कि हम वही सुनना चाहते हैं, जो हमें अच्छा लगता है, वह नहीं जो सत्य है,या सुनते समय ध्यान देने कि बजाय ध्यानस्थ हो जाते हैं, पता नहीं कहाँ कहाँ अपने विचार भ्रमण करते रहते हैं, जहाँ विराजे हैं, आसनस्थ हैं, वहां न होकर हम कहीं और अपने विचारों के माध्यम से विचरते रहते हैं, जो ध्यान देना चाहिए, वो ध्यान दे नहीं पाते हैं. आज का विषय यही है, ध्यान दें या ध्यान करें, अकर्मण्य बने या परिवार परिजन देश राष्ट्र समाज के उत्तरदायित्व को निभाते हुए, अपने आचरण व्यवहार पर ध्यान दें, जो हमारे परिवार के अनुरूप हो, परिजन के अनुरूप हो, देश के अनुरूप हो, राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अनुरूप हो.
 
                                                                        हम सभी जानते हैं कि, हमारा मस्तिष्क तीन मिनट से ज्यादा सो नहीं सकता, तीन मिनट से ज्यादा हम स्वांस नहीं रोक सकते, तो ध्यान में जब हम बैठते हैं, तो हमारा मस्तिष्क चलायमान ही है, तरह तरह के विचार हमारे दोनों मन के परिपेक्ष्य में आते ही रहते है. कहा जाता है, हमारे अभ्यंतर में दो मन होते हैं. " मन से मन को तौलिये दो मन कभी ना होय " एक मन अच्छे विचारों को जन्म देता है, दूसरा अप्राकृतिक विचारों को. इन्ही कारणों से पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु ने कहा है, हम ध्यान करे, समय से, काल से, एक निश्चित स्थान पर बैठकर, क्योंकि उसका समय निर्धारित है. प्रातः सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से सूर्योदय तक और सूर्यास्त के एक घंटा बाद से एक घंटा बाद तक. इन दोनों काल के मध्य में हम बीस पच्चीस मिनट ही ध्यानस्थ हो पाते हैं, वह भी जो इसके अभ्यस्त हैं. बहुत बड़ी मशीन को जब चालु करना होता है, तो हमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परन्तु यदि उसके चक्के के मध्य में एक छोटी सी  मशीन से हवा का दबाव दिया जाय तो बड़ी मशीन का चक्का पूरा घूम जाता है, और मशीन चालु हो जाती है. इसीलिए किसी कार्य को सही ढंग से करना एक निश्चित समय में, निश्चित मुद्रा में और निश्चित विचारों का चिंतन मनन करके किया जाय, तो निश्चित ही हमारे अभ्यंतर में उस परा प्रकृति की प्रकृति को अपनी प्रकृति में उतार सकते हैं, यह समझने एवं अभ्यास की चीज़ है, ध्यान देने की चीज़ है, हम ध्यान दें.
 
                                       हम अकर्मण्य बनकर ध्यान ना करें, तुम्हारा ध्यान वह नहीं करेगा जो सक्रिय है. बैठते चलते रहना श्रेयस्कर है, सोचोगे तो चलोगे, सभी तरह के मार्ग को पीछे धकेल सकते हैं. काल को धकेल कर आगे बढ़ सकते हैं.  ध्यान लगाए प्रमाद करना व्यर्थ है. हम जो भी ध्यान धारणा नियमबद्ध होकर करते हैं, वह व्यर्थ नहीं जाता है. वह किसी ना किसी रूप में हम में  अवश्य फलवती होता है. परन्तु यह सब तब फलवती होगा जब हम जो हमारी संस्कृति में कहा गया है, बतलाया गया है, समझाया गया है, उस पर ध्यान देंगे. यदि आपका चित्त खिन्न है, घृणा द्वेष राग से घिरा हुआ है, तो उस क्षण उस समय चित्त में वह ईश्वरीय गुण का प्रादुर्भाव या यों कहें आठो तरंगो का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता, चाहे कितना ही चिंतन मनन ध्यान धारणा कर लें. आप कहेंगे कि, होता नहीं है, पर होगा कैसे आप तो समाज में व्याप्त जैसे लोगो या विचारों से घिरे हैं. जिस से अवगुण आपमें प्रविष्ट होकर आपके ह्रदय, मन एवं विचारों को कलुषित कर देते हैं, जिनके कारण आप स्थिर नहीं हो पाते हैं. इन्ही कारणों से हाथ पैर मोड़कर हम ध्यान करने बैठते हैं, पर हो नहीं पाता, कर नहीं पाते, अतः ध्यान दें अपने दैनिंदनी के कार्यो पर अपने संभाषण पर एक दुसरे के साथ समाज में विचारों बातों के आदान प्रदान पर, अपने साथ बैठने वालो के आचार विचार पर कि कहीं हमें संग दोष तो नहीं है, जिसके कारण मैं स्थिर नहीं हो पाता क्योंकि यदि मन चंचल हो तो सामने बड़ी से बड़ी बात भी नहीं दिखती,  यह स्थिर हो तो, भूसे के ढेर से सुई भी ढूंढ सकते हैं. हम  स्थिरता या एकाग्रता को नए कमरे या गुफा में नहीं धारण कर सकते यदि हम अपने आप में अवस्थित ना हो. यदि हम अपने आप में अवस्थित हैं तो, सहस्त्रो के बीच में भी एकाग्रता का बोध हो जाता है, रास्ते के चौराहे पर भी भीड़ में हम एकाग्र हो सकते हैं, ध्यानस्थ हो सकते हैं, यह सीखने की चीज़ है, इसे जानना, समझना एवं अभ्यास करना होगा.
 
                                                                 अंत में ध्यान की प्रक्रिया का जितना मुझे ज्ञान है, उस विषय को आप सबके समक्ष रखने का प्रयास कर रहा हूँ, हो सकता है, इस विषय पर ज्ञानियों को मतभेद हो पर मनभेद नहीं हो सकता. जो आप सभी सज्जनों को अच्छा लगे, उचित हो उसे ग्रहण कर ले, जो आपके अनुरूप हो आपकी प्रकृति के अनुरूप ना हो उसे आप त्याग दें.  सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से सूर्योदय तक के मध्य में बीस से पच्चीस मिनट हम पूर्व उत्तर के कोने की तरफ मुख करके पद्मासन, सुखासन या एनी किसी आसनों में बैठे, अपनी भृकुटी के मध्य में शून्य का, श्वेत कमलदल पर आसीन अपने गुरु का, नीले आकाश का या आठ रंग या आठ रश्मियों का ध्यान करते हुए अपने स्वांस पर ध्यान दें. प्रयास करें स्वांस आपका छोटा से छोटा हो, जिस से आपके प्राण सशक्त हो, आप दीर्घायु हो सके, यदि अन्य  अभ्यास करना हो तो अपने आस पास की वस्तुओ समय व्यक्तियों का अभ्यास करें. मन की बातें जान लेना  वस्तुओ के विषय में सही अनुमान लगा लेना वस्त्रों के रंग के विषय में सटीक अनुमान, इस तरह से ध्यान की प्रारम्भिक प्रक्रिया है, यह  किसी भी तरह से ऋषियों से सम्बंधित नहीं हो सकता, इसी प्रकार हम संध्या को भी ध्यान कर सकते हैं, सिर्फ समय सूर्यास्त के एक घंटा बाद से एक घंटा बाद के मध्य होना चाहिए. अपने अभ्यंतर में प्राणमयी शक्ति के संयोजने जानने या उस परा प्रकृति के प्रकृति से अपनी प्रकृति का तारतम्य बिठाने का यह एक सरल माध्यम है. अपनी नाडी को विचारों को आचारों को शुद्ध करने की बिना मन्त्र की यह एक विद्या है, जो हमारे दैनिन्दिनी के कार्यो में भी सतत सहयोग करता है.
 
                                                       इतने विचारों के बाद भी हमारी मान्यता है, कि हमें अपने आचार, विचार, व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए, आप देखें प्रारम्भ से ही हमारे माता पिता गुरुजनों ने ध्यान देने कि बात ज्यादा की है, अमुक पर ध्यान दो, पढ़ाई पर ध्यान दो, घर पर ध्यान दो, परिजन पर ध्यान दो ना कि हमें ध्यान करने को कहा जाता है. जैसे ही हम ध्यान देने लगते हैं, हमारे विचार आचार व्यवहार समाज के अनुरूप, राष्ट्र के अनुरूप, परिवार परिजन के अनुरूप होने लगते हैं. और हम मुदिता को प्राप्त होने लगते हैं, प्रसन्नता, आल्हाद एवं एकाग्रता को प्राप्त होने लगते हैं, और यही हमें अपने आप ध्यानस्थ करा देता है. हम सभी डर, भय, मोह और जुगुप्सा से दूर होने लगते हैं, हमें परमानंद की अनुभूति स्वतः प्राप्त होने लगती है. आइये हम सभी एक सच्ची सही और शान्ति की राह पर सरलता से बिना कठिनाई के चलना प्रारम्भ करें और अपने उत्तरदायित्व पर अक्षरसः खरे उतारें.
 
                      इस तरह के विषयो पर आगे भी आप सभी से चर्चा होती रहेगी, मैंने  अपनी बात सरल शब्दों में सरलता से आप सभी के समक्ष रखी हैं, आशा है आप सभी इसे अपनी दैनिन्दिनी के कार्यों में उतारने का प्रयास करेंगे कठिन या शास्त्र सम्मत शब्दों द्वारा भी यह व्यक्त किया जा सकता था, पर समय काल के अनुरूप शास्त्रों में जो कहा गया है, वह आपके समझ में आये ऐसा होना पड़ेगा. अगली बार एक नए विषय के साथ आप सबके समक्ष उपस्थित रहूँगा इसी आशा के साथ आप सब में विराजमान उस प्राणमयी परमेश्वरी को प्रणाम करता हूँ और अपनी लेखनी को विराम देता हूँ.
 

2 comments:

  1. jiska mujhey tha intajaar wo ghsdi aa gayi....................aho.jai baba ji ki jai....................

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  2. ***** कहना यह चाहता हूँ, कि हम वही सुनना चाहते हैं, जो हमें अच्छा लगता है, वह नहीं जो सत्य है,या सुनते समय ध्यान देने कि बजाय ध्यानस्थ हो जाते हैं, पता नहीं कहाँ कहाँ अपने विचार भ्रमण करते रहते हैं, जहाँ विराजे हैं, आसनस्थ हैं, वहां न होकर हम कहीं और अपने विचारों के माध्यम से विचरते रहते हैं, जो ध्यान देना चाहिए, वो ध्यान दे नहीं पाते हैं. आज का विषय यही है, ध्यान दें या ध्यान करें
    *****पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु ने कहा है, हम ध्यान करे, समय से, काल से, एक निश्चित स्थान पर बैठकर, क्योंकि उसका समय निर्धारित है. प्रातः सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से सूर्योदय तक और सूर्यास्त के एक घंटा बाद से एक घंटा बाद तक
    *****बहुत बड़ी मशीन को जब चालु करना होता है, तो हमें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परन्तु यदि उसके चक्के के मध्य में एक छोटी सी मशीन से हवा का दबाव दिया जाय तो बड़ी मशीन का चक्का पूरा घूम जाता है, और मशीन चालु हो जाती है. इसीलिए किसी कार्य को सही ढंग से करना एक निश्चित समय में, निश्चित मुद्रा में और निश्चित विचारों का चिंतन मनन करके किया जाय, तो निश्चित ही हमारे अभ्यंतर में उस परा प्रकृति की प्रकृति को अपनी प्रकृति में उतार सकते हैं, यह समझने एवं अभ्यास की चीज़ है, ध्यान देने की चीज़ है, हम ध्यान दें
    *****हम स्थिरता या एकाग्रता को नए कमरे या गुफा में नहीं धारण कर सकते यदि हम अपने आप में अवस्थित ना हो. यदि हम अपने आप में अवस्थित हैं तो, सहस्त्रो के बीच में भी एकाग्रता का बोध हो जाता है, इसे जानना, समझना एवं अभ्यास करना होगा

    *****सूर्योदय के एक घंटा पूर्व से सूर्योदय तक के मध्य में बीस से पच्चीस मिनट हम पूर्व उत्तर के कोने की तरफ मुख करके पद्मासन, सुखासन या एनी किसी आसनों में बैठे, अपनी भृकुटी के मध्य में शून्य का, श्वेत कमलदल पर आसीन अपने गुरु का, नीले आकाश का या आठ रंग या आठ रश्मियों का ध्यान करते हुए अपने स्वांस पर ध्यान दें. प्रयास करें स्वांस आपका छोटा से छोटा हो, जिस से आपके प्राण सशक्त हो, आप दीर्घायु हो सके, इसी प्रकार हम संध्या को भी ध्यान कर सकते हैं, सिर्फ समय सूर्यास्त के एक घंटा बाद से एक घंटा बाद के मध्य होना चाहिए. अपने अभ्यंतर में प्राणमयी शक्ति के संयोजने जानने या उस परा प्रकृति के प्रकृति से अपनी प्रकृति का तारतम्य बिठाने का यह एक सरल माध्यम है. अपनी नाडी को विचारों को आचारों को शुद्ध करने की बिना मन्त्र की यह एक विद्या है, जो हमारे दैनिन्दिनी के कार्यो में भी सतत सहयोग करता है
    *****हमें अपने आचार, विचार, व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए जैसे ही हम ध्यान देने लगते हैं, हमारे विचार आचार व्यवहार समाज के अनुरूप, राष्ट्र के अनुरूप, परिवार परिजन के अनुरूप होने लगते हैं. और हम मुदिता को प्राप्त होने लगते हैं, प्रसन्नता, आल्हाद एवं एकाग्रता को प्राप्त होने लगते हैं, और यही हमें अपने आप ध्यानस्थ करा देता है
    **** jai baba ji ki jai .....................

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