Sunday, March 13, 2011

अवधूत समूह रत्न राम लीला प्रसंग

प्रिय मित्रों
                   जीवन का सबसे मधुर क्षण वो होता है, जब कोई व्यक्ति आपके अभ्यंतर में दस्तक देता है, और द्वार खोलते ही आपके जीवन का हर कोना एक मधुर सुवास से भर जाता है. आपके जीवन के बुझे तारो में कोई संगीत की अग्नि प्रज्वलित हो जाती है. सदगुरु भी जब आपके अभ्यंतर पर दस्तक देते हैं तो जीवन ही नहीं जीवन के पहले और जीवन के बाद के क्षण भी अमृत से लबालब हो जाते हैं. वो एक अनजान हो या जाने पहचाने पर जब वो सामने आते हैं तो पहली बार आपकी भावनाए ह्रदय से नहीं आत्मा से उठती प्रतीत होती हैं. जब गुरु समक्ष होते हैं तो आप अपने साथ होने लगते हैं, आपका मन, आपकी इन्द्रियाँ, आपका ह्रदय, आपका मस्तिष्क और आपकी आत्मा एक ही बिंदु पर आकर ठहर जाते हैं.  एक ऐसा पल जब आप पहली बार अपने आप में होते हैं. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ जब मैंने पहली बार पूज्य बाबा के दर्शन किये.

                     हम उस वक्त एस बी आई अपार्टमेन्ट, रायपुर में रहते थे. पिताजी बैंक अधिकारी थे, पास ही श्री देवेश पंडा का घर था जो मेरे मित्र हैं. उन दिनों आध्यात्म के प्रति एक अजीब सी प्यास थी, साधू संतो के दर्शन करना दैकिन जीवन चर्या हुआ करती थी. देवेश ने मुझे बताया की हमारे  घर पर औघड़ बाबा आये हैं. मैंने कहा यार मुझे भी मिलवा दे आज तक अघोरी औघड़ लोगो का नाम ही सुना है कभी देखा नहीं. मैंने सोचा जटा जूट धारी भस्म रुद्राक्ष हड्डी कपाल यही सब उपयोग करने वाले किसी भीमकाय व्यक्ति से सामना होने जा रहा है. जब मैं उसके घर पहुंचा तो देखा एक सौम्य मूर्ति मेरे सामने विराजमान है. सफ़ेद लुंगी और टी शर्ट पहने एक युवा सज्जन बैठे हैं, गज़ब का आकर्षण था उस चेहरे और आँखों में, कान मानो गणेशजी के कान हो, सर इतना बड़ा की आश्चर्य हुआ. मैंने नमस्कार किया, माथा टेक कर प्रणाम या पैर छूने का उपक्रम नहीं किया. उन्होंने पास बैठाया और घर परिवार पढ़ाई आदि की बातें पूछी. ना आध्यात्म का मैंने कोई सवाल किया और ना उन्होंने कोई उपदेश दिया. बस यही थी मेरी छोटी सी मुलाक़ात. पर कबीर कहते हैं ना, शब्द के बाण लगाए रे फकीरवा. उनके शब्दों में उनकी आँखों में इतनी गहराई दिखी की मैंने स्वयं के अस्तित्व को उसमे डूबते देखा. बस ह्रदय ने कह दिया यही हैं जिसकी बरसो से तलाश थी. आश्चर्यो का आश्चर्य, मेरे जैसा इंसान जो बिना प्रश्न और तर्क किये किसी को जाने नहीं देता था वो एक व्यक्ति के मौन में डूब गया. ऐसा तीर लगा की बस चारो खाने चित्त. उन दिनों मैं तंत्र मन्त्र के क्षेत्र में बहुत सारे प्रयोग किया करता था, जाने कितनो साधू संतो महंतो के पास जाता था, कितने तांत्रिको मांत्रिको के साथ उठना बैठना होता था, कुल मिलाकर मैं खुद को छोटी मोटी हस्ती नहीं समझता था, पर पूज्य बाबा से मिलने के बाद लगा की अबे कहाँ तालाब की ख़ाक छान रहा है, यह तो पूरा समंदर हैं.  गजब बात है की बिना आध्यात्म की बाते किये कोई आपके आध्यात्म मार्ग  का पथ प्रदर्शक लगने लगा. यही है एक सदगुरु की पहचान. मौन में सारी बाते हो जाती है. बरसो की प्यास मिट जाती है और ह्रदय में आनंद का झरना फूट पड़ता है.

अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम


        

1 comment:

  1. pahali nazar ka kaamal kamal ji ka.........wah guruprem ki baten iswar prem ki hi hai................

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